Autumn
"पतझड़"
पतझड़ का मौसम जो हैं।
इरादा तो कोई उन पत्तों से पूछे,
जो आधे सूखे - आधे भीगे से है।
क्या वो झड़ना भी चाहते है?
क्या वो किसी के पैरो के नीचे कुचलना भी चाहते है?
क्या वो गुमनाम से हवा के साथ भटकना भी चाहते है?
शायद डालियों को उनसे बिछड़ना ही पड़ेगा।
अलग हुए उन पत्तों को, सूखते देखना ही पड़ेगा।
गलती ना मौसम की है,
ना ही उन जड़ों की, जो सालो से रोशनी का दीदार भी ना किया।
कुछ पत्तियां झड़ जाती है
कुछ सूख कर भी डालियों से लगी रहती है।
पतझड़ का मौसम जो है।
शायद त्याग और बलिदान का दूसरा नाम।
बल और साहस की नदियों का स्रोत।
कहते हैं, बदलाव ही तो प्रगति का संकेत है।
अगले पड़ाव को जीने की तयारी है।
नए काल को धरा में,
अवतरित करने का मैदान है।
कठिनाइयों से जूझने का अस्त्र है।
जड़ों को मजबूत करने का पोषण है।
खूबसूरती के दीदार का आईना है।
पतझड़ का मौसम जो है।
"Autumn"
Autumn descends a quiet hymn in the air.
Who will ask the secrets of the leaves,
Half bathed in dew, half-withered in their fade?
Do they long to fall?
To be crushed beneath wandering feet?
Or to drift nameless on the winds,
Vanishing into the whisper of the sky?
The branches must part with them soon,
Watching as they dry, curling towards silence.
No blame rests upon the season,
Nor on the roots, hidden from light for countless years.
Some leaves will fall,
While others cling, even in their frailty,
Still tethered to the branches' tender grasp.
It is autumn—
A time of quiet surrender and selfless giving.
The season where rivers of strength swell unseen.
Change is the herald of progress, they say,
A preparation for the new stage of life.
It readies the earth to birth a new era,
A blade to cut through the hardships ahead,
Nourishing roots with quiet wisdom,
Reflecting beauty in the mirror of its decay.
Autumn comes, soft yet resolute—
The season of transformation.